ब्लैंक कोंल |
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हल्ली असा अवेळीच येतो कधी फोन |
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आणि कळतच नाही बोलतय कोण |
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बोलतच नाही मुळी पलीकडे कोणी |
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ऐकू येत रहातं फक्त डोळ्यातलं पाणी ...(१) |
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कळताच मलाही मग थोडंसं काही |
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मीही पुढे मग बोलतंच नाही |
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फोनच्या तारेतून शांतता वाहते |
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खूप खूप आतून अजून काही सांगते ...(२) |
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नदी नि शेतं नि वार्याची गिरकी |
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ढगाची विजेने घेतलेली फिरकी |
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वाळूवर काढलेली पाण्याची चित्रं |
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"तुझा" पुढे मी खोडलेला "मित्र" ...(३) |
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टपला नि खोड्या नि रुसवे नि राग |
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एकदा तरी सहज म्हणून शहाण्यासारखं वाग |
हसायचे ढीगभर नि लोळून लोळून |
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बोलायचे थोडेच पण घोळून घोळून...(४) |
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वडाचे झाड आणि बसायला पार |
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थंडीमधे काढायची उन्हात धार |
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कॉफी घेउन थोडेसे बोलायचे कडू |
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हसताना पहायचे येते का रडू ...(५) |
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बोलायचे गाणे आणि बोलायची चित्रं |
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नुसतीच सही करुन धाडायची पत्रं |
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क्षणांना यायची घुंगरांची लय |
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प्राणांना यायची कवीतेची सय...(६) |
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माणूस आहेस "गलत" पण लिहितोस "सही" |
पावसात भिजलेली कवीतांची वही |
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पुन्हा नीट नव्याने लिहीत का नाहीस? |
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काय रे.... काही आठवतय का नाही? |
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शब्दसुद्धा नाही तरी कळे असे काही |
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हातामधला हात सुद्धा जितकं बोलत नाही...(७) |
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हल्ली असा अवेळीच येतो कधी फोन |
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आणि कळतच नाही बोलतय कोण |
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दोन्ही कडे अबोला आणि मध्यात कल्लोळ |
छाती मधे घुसमटतात हंबरड्यांची लोळ...(८) |
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ऐकू येतात कोंडलेले काही श्वास फक्त |
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कोणासाठीतरी खोल दुखलेलं रक्त |
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गरम होतात डोळे नि थरथरतो हात |
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सर्रकन निघते क्षणांची कात...(९) |
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उलटे नि सुलटे कोसळते काही |
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मुक्यानेच म्हणतो "नको... आता नाही" |
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फार नाही... चालतो मिनिटे अवघी तीन |
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तेवढ्यात जाणवतो जन्माचा शीण |
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तुटत गेले दोर आणि उसवत गेली वीण |
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डोळे झाले जुने तरी पाणी नविन...(१०) |
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हल्ली असा अवेळीच येतो कधी फोन.... |
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....संदिप |
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